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Dekhte hue bhi nahi dekhna

अंधकार में तेजी से आगे बढ़ती हुई आधुनिक सभ्यता - कुछ ऐसी ही विरोधाभासी परन्तु सत्य । वैदिक ग्रंथो की दॄष्टि से देखने से पता चलता है कि कैसे "देखते हुए भी नहीं देखने" वाली बात स्पष्ट होती है । आज से लगभग ५०००  वर्ष पूर्व भगवान् कृष्ण का इस धराधाम से स्वधाम लौट जाने के बाद, भगवान् कृष्ण के ही साहित्यिक अवतार, वैदिक ग्रंथो के महा संकलनकर्ता एवं तत्वद्रष्टा श्रील वेद व्यास ने अपने आधात्मिक गुरु देवर्षि नारद की कृपा से रचित श्रीमद भागवतपुराण में कलियुगी अंधकार एवं दृष्टिहीन सभ्यता को बतलाया था। जिसे श्रील शुकदेव गोस्वामी राजर्षि परीक्षित से इस प्रकार कहते हैं :

देहापत्य कलत्रादिष्व आत्म्सैन्येष्व असत्स्वपि ।
तेषां प्रमत्तोनिधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥

 अर्थात - आत्मतत्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते क्योकि वे शरीर बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं ।  पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यंभावी मृत्यु को नहीं देख पाते । 

वहीं दूसरी ओर अन्यत्र वर्णन है कि -

कृष्णे स्वधामोपगते धर्म ज्ञानादिभिः सह ।
कलौ नष्टदृशामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ॥

(श्रिमद् भागवतं 1.3.43)

अर्थात- यह भागवत पुराण सूर्य के समान तेजस्वी हे और धर्म, ज्ञान आदि के साथ कृष्ण द्वारा अपने धाम चले जाने के बाद ही उसका उदय हुआ । जिन लोगो ने कलियुग में अज्ञान के गहन अंधकार के कारण अपनी दॄष्टि खो दी है, उन्हें इस पुराण से प्रकाश प्राप्त होगा । 

उक्त कथनों के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक चकाचौंध वाली सभ्यता का अवलोकन करने से स्थिति स्पष्ट होती प्रतीत होती है । आश्चर्य तब होता है जब आँख होते हुए भी व्यक्ति अन्धे व्यक्ति की तरह दिशाहीनता एवं अज्ञानता का शिकार हो जाता है।  यहाँ पर दो बातें ध्यान देने एवं समझने योग्य है। प्रथम यह कि जिन तत्वदर्शियों ने जिस दॄष्टि की बात की है वह अत्यन्त उन्नत, सूक्ष्म एवं आध्यात्मिक है।  दूसरी यह कि आधुनिक मानव अपने जिन भौतिक नेत्रों एवं इन्द्रियों से सृष्टि को जिस रूप में देखता एवं समझता है वह अत्यंत स्थूल, निम्न एवं अपूर्ण है। यही दो विरोधी स्थितियां एवं विचार अनादि काल से जीवों के भौतिक जगत में संघर्ष एवं दुःख के मूल कारण हैं । 

भगवदगीता १५. १० में भगवान्  श्री कृष्ण कहते है।,

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥

"मूर्ख न तो समझ पाते हैं कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है। लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान में प्रशिक्षित होती हैं, वह यह सब देख सकता है। "यहाँ पर भगवान् जिस ज्ञान चक्षु की बात कर रहें है वह पूर्णतः शुद्ध आध्यात्मिक दॄष्टि है जो वर्तमान में जीवात्मा के काम शत्रु द्वारा ढंक दी गयी है। काम को जीवात्मा का नित्य शत्रु बताया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से इसी महापापी एवं अत्यंत बलवान कामशत्रु को ज्ञानरूपी तलवार से पराजित करने का उपदेश देते हैं । कामशत्रु के सम्बन्ध में चाणक्य पंडित का विचार है, "उल्लू को दिन में और कौए को रात में दिखाई नहीं देता, परन्तु कामी जीव को न दिन में न रात में दिखाई देता है।"

एक ओर आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति ने जहाँ मनुष्य के लिए भ्रामक सुख का स्वप्न दिखाया है, वहीं दूसरी ओर भय, तनाव एवं अन्धाधुंध भागदौड़ की जिंदगी जीने  के लिए विवश भी किया है । सौभाग्य से इस कलियुगी तिमिर का नाश करने के लिए भागवत् पुराण रूपी सूर्य का उदय भी हुआ जिसका आश्रय लेकर यात्री अंधेरे में भी सुरक्षित यात्रा कर सकता है। 

कृष्ण कृपामूर्ति श्रील प्रभुपाद इसी भागवत प्रकाश को लेकर, पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्र बिन्दु, अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में, ऐसे समय में प्रकट हुए जब कलियुग के प्रभाव से आध्यात्मिक ज्ञान नष्ट हो चुका था।  जिस प्रकार दूध में मिले हुए पानी को अलग करना साधारण जिव के लिए कठिन हे परन्तु हंस एक ऐसा पक्षी है जो दूध में मिले हुए पानी को अलग कर सकता है। उसी प्रकार इस भौतिक जगत में कृष्ण एवं माया इस प्रकार मिले हुए है जिसे बद्ध जीव के लिए समझना कठिन है परन्तु जो तत्वदर्शी एवं परमहंस हैं, वे कृष्ण एवं माया अर्थात प्रकाश एवं अंधकार का भेद लोगो को समझा सकते है। ऐसे ही परमहंस तत्वदर्शी गुरु श्रील प्रभुपाद की असीम अनुकम्पा से विश्व को कृष्णभावनामृत का अनुपम उपहार प्राप्त हुआ।  जितनी तीव्र गति से अंधकार अर्थात कलि का प्रभाव बढ़ता जा रहा है , उतनी ही तीव्र गति से श्रील प्रभुपाद के ग्रन्थों का वितरण एवं पठन-पाठन होना चाहिए जिससे अँधेरे में डूबती हुई मानवता को संकीर्तन आंदोलन के प्रकाश से बचाया जा सके।

Vidhyasagar Nimai Dasa

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Vidyasagar Nimai Dasa has been a full-time missionary since 2003, devoting his life to spreading the teachings of Krishna Consciousness. With a deep love for Vedic scriptures, he immerses himself in reading and studying them, engaging in elaborate discussions to delve into their profound wisdom. Fluent in Hindi and Sanskrit. Vidyasagar Nimai Dasa possesses a strong command over these languages, enabling him to connect with a diverse range of individuals and effectively convey the teachings of Krishna Consciousness. His extensive knowledge of the scriptures and his enthusiastic preaching make him a vibrant and inspiring presence at the Hare Krishna Movement in Ahmedabad.